इस रोग को वृषण शोथ, अधिवृषण शोथ के नामों से भी जाना जाता है। जब शोथ अधिवृषण (Epididymis) और वृषण (टेस्टीज Testes) में फैल जाता है, तो उसको ‘अण्डकोष प्रदाह’ कहा जाता है। सरलतम शब्दों में कहें, तो इस रोग में अण्ड (टेस्टीकल Testicle) और उसकी आवरण झिल्ली में शोथ उत्पन्न हो जाता है, जिससे आक्रान्त स्थान पर तीव्र दर्द, कठोरता, त्वचा पर लालिमा तथा चिकनापन दिखाई पड़ता है और कभी-कभी (नये रोग में) तीव्र पीड़ा भी होती है।
प्रसार – संक्रमण एपिडिडायमिस तक मूत्रमार्ग, प्रोस्टेट तथा सेमीनलवेसीकल ‘से फैलकर ग्लोबसमाइनर को प्रभावित कर देता है। रोग का प्रसार रक्त के द्वारा भी होता है।
रोग के भेद या प्रकार
यह रोग दो प्रकार का होता है- 1. तीव्र (एक्यूट), 2. चिरकारी (क्रोनिक) ।
रोग के प्रमुख कारण
- रोग का मुख्य कारण जीवाणु। (बैक्टीरिया जैसे- ई० कोलाई, स्ट्रेप्टो- कोक्कस, स्टेफिलोकोक्कस), मूत्रमार्ग तथा प्रोस्टेट के संक्रमण, गोनोकोक्कल अधिवृषण शोथ, टी०बी० (क्षयरोग) के जीवाणु द्वारा आक्रमण से, चोट लगने से, प्रोस्टेट की शल्यक्रिया (ऑपरेशन) के बाद, सूजाक रोग (गोनोरिया) रोग होने पर, कनफेड़ रोग (Mumps) में, टायफाइड ज्वर के आक्रमण के बाद प्राय:, * उपदंश (सिफलिस), गठिया, छोटे जोड़ों का दर्द, मूत्राशय की पथरी एवं यकृत दोष तथा फाइलेरिया (हाथीपांव या फीलपांव) से भी।
रोग के प्रमुख लक्षण व चिह्न
- जघन (Groin) में पीड़ा।
- हल्का-हल्का-सा ज्वर।
- वृषण (टेस्टीज) में तेज दर्द और शोथ। पीड़ा के कारण मितली। हाथ लगाने, दबाने तथा कोई वस्तु लगने से दर्द तेज हो जाता है।
- भूख में कमी।
- दर्द के कारण कोई भी काम करने से दिल घबराना।
स्क्रोटम की त्वचा सूजकर लाल व चिकनी हो जाना।
- मूत्र में जलन (हो सकती है अथवा नहीं भी होती है।)
- एपिडिडायमिस स्क्रोटल त्वचा से चिपक जाता है।
- यह रोग प्रायः नौजवानों में पाया जाता है। चिरकारी (क्रोनिक) रोगियों में ज्वर नहीं होता है तथा ऐसे रोगियों को दर्द भी कम होता है अथवा दर्द न के बराबर होता है।
- कभी एक तथा कभी दोनों अण्डकोषों में सूजन।
- कई बार कामवासना की अधिकता में वीर्य अपने स्थान से निकलने के लिए गति करता है, यदि वह (वीर्य) किसी कारण से न निकल सके, तो भी अण्डकोषों में शोध (सूजन) उत्पन्न हो जाती है।
रोग के उपद्रव
- वृषण (टेस्टीज) में मवाद, वृषण खराब हो जाते हैं।
चिकित्सा
- रोग के मूल कारण को खोजकर, उसकी समुचित चिकित्सा करें।
- रोगी को घूंट-घूंट करके पानी अधिक पीने हेतु परामर्श दें।
- जब तक रोगी के तीव्र लक्षण दूर न हो जायें, तब तक उसको पूर्ण विश्राम
करायें।
- वृषण कोष के नीचे साफ सूती कपड़े की मोटी गद्दी रखकर हल्का-सा लंगोट बांधे।
- पीड़ा की स्थिति में गरम जल में कपड़ा भिगोकर आक्रान्त/प्रभावित स्थान की सिंकाई करें।
- पीड़ा की स्थिति में पीड़ाहर ओषधि – ब्रूफेन 600 टेबलेट, वोवीरान टेबलेट, कॉम्बीफ्लेम टेबलेट (इनमें से कोई एक ओषधि) 1-1 टेबलेट दिन में 3 बार (सुबह, दोपहर, रात को) नाश्ता/भोजन के बाद लें।
- रोगी के मूत्र को प्रयोगशाला (लेबोरेट्री) में जांच के लिए भेजकर ब्रॉड स्पेक्ट्रम एण्टीबॉयोटिक ओषधि (यथा- एम्पीसिलीन, टेट्रासाइक्लिन, सिफलेक्सिन, एमोक्सीसिलीन आदि) 500 मि०ग्रा० की प्रतिमात्रा में दिन में 3 बार दें। साथ ही रोगी को मल्टीविटामिन का कैपसूल भी दें।
- यदि रोगी को मूत्र में जलन हो, तो इलिक्जिर अल्कासोल 1-1 चम्मच दिन में 3-4 बार आधा कप पानी में मिलाकर दें।
- एण्टीबॉयोटिक ओषधि कम-से-कम 2 सप्ताह अथवा जब तक शोष व लालिमा दूर न हो जाये, तब तक दें।
- रोगी को सूजाक रोग होने की दशा में पेनिसिलीन का प्रयोग करें।
- यदि रोग कनफेड़/कनसुआ (मम्पस) के कारण हो, तो स्टेरॉयड्स ओषधि दें। इस हेतु प्रेडनीसोलोन 5 मि०ग्रा० (टेबलेट वायसोलोन) की 1-1 टेबलेट दिन में 3 बार 3 दिन तक दें, तदुपरान्त केवल 1 टेबलेट 3 दिन तक दें, उसके उपरान्त 2 दिन तक प्रतिदिन 1/2-1/2 टेबलेट दें।
- रोगी को कब्ज की स्थिति में मैगसल्फ का विरेचन दें।
- वृषणों में पीव/मवाद पड़ने की स्थिति में चीरा लगाकर निकालें, (ऑपरेशन) अधिक खराब स्थिति में रोगी के वृषणों को काटकर निकाल दिया जाता है।
- यदि रोग फाइलेरिया के कारण हो, तो हेट्राजोन टेबलेट 2-2 टेबलेट भोजनोपरान्त सेवन करायें, साथ ही दर्द के स्थान पर इक्थियोल बेलाडोना पलास्टर लगायें।
- दर्द व सूजन दूर करने हेतु ‘रिलेक्सिल क्रीम’ साफ-स्वच्छ सूती वस्त्र पर फैलाकर पीड़ित अण्डकोष पर बांधें।
- रोगी को रात में नींद न आने की स्थिति में टेबलेट काम्पोज 5 मि०ग्रा० को रात्रि में सोते समय ताजा पानी के साथ दें।